शहर
मेरी पहली नौकरी ने मुझे साउथ कोरिया पहुंचा दिया। वहाँ घूमने के अनगिनत स्थान थे, विशेष रूप से सियोल (Seoul) जो एक जगमगाता शहर था। हर दिन कुछ न कुछ होता रहता था - कभी कोई कंसर्ट, कभी कोई फेस्टिवल, तो कभी कोई मीटअप। सियोल में देर रात को सड़कों पर घूमते हुए लोग दिख जाते थे। मिलने-जुलने के कई स्थान थे - कैफ़े, गेम्स, पार्क, रेस्टोरेंट - लेकिन फिर भी इस शहर में कुछ अजीब सा था। यह बात सिर्फ इसलिए नहीं थी कि हम विदेशी थे। मैंने शायद ही कभी लोगों को एक-दूसरे से बात करते देखा हो। बस में बैठे हों या लाइन में खड़े, लोग अपने-अपने फोन में व्यस्त रहते थे। एक-दूसरे की तरफ देखते भी नहीं थे, चाहे वह घूरने के लिए ही क्यों न हो।
यूँ तो इस शहर में हर रोज़ लगते मेले हैं
फिर भी इस शहर के लोग लगते मुझे अकेले हैं
इस शहर का अकेलापन हमें भी अखरने लगा था। इसलिए हम सारे दोस्त हर वीकेंड किसी के घर मिलने का प्लान बनाते थे। टीवी पर गाने चला कर हम या तो कोई गेम खेलते, या अपने बचपन और कॉलेज की कहानियाँ याद करते। दोस्तों का यह ग्रुप ही एक सहारा था, ऐसे देश में जहाँ हम पूरे-पूरे दिन बिना किसी से बात किए गुजार रहे थे। आखिर कितनी देर कोई ऑफिस में टीटी खेल सकता है? कितनी ही कॉफी पी सकता है? जरा बताइए। हम अपनी नौकरी से उतने ही नाखुश थे जितना इस शहर से। बातों के बीच कभी-कभी खामोशी छा जाती और हमारे चेहरों पर उदासी फैल जाती। फिर कमरे का माहौल हल्का करने के लिए कोई दोस्त एक नई कहानी शुरू कर देता, और हम सब फिर से अपनी चिंताओं को भूल जाते।
एक दिन, रात काफी हो गई थी और हम सब बातें करते-करते थक गए थे। हम सभी, जिनका घर जाने का बिल्कुल मन नहीं था, उसी ड्रॉइंग रूम में बैठ कर अपने फोन चला रहे थे। तभी टीवी पर 'कबीरा' गाना बजने लगा:
बन लिया अपना पैग़म्बर
तार लिया तू सात समुन्दर
फिर भी सूखा मन के अंदर क्यों रहे गया
अब इस बात को कई साल हो गए हैं, और हम दोस्तों ने जाने कितने शहर बदल लिए होंगे: पेरिस, कैलिफोर्निया, इलिनॉय, बॉम्बे, बैंगलोर। लेकिन मुझे नहीं लगता कि शहर वाली उस फीलिंग में कोई तबदीली आई है। मैं पिछले साल कोरिया से वापस मुंबई आ गया था। मुंबई में एक साल यूं ही बीत गया, पता भी ना चला। शहरों में एक रफ्तार है, ट्रेन के जैसे, जिसे आप पकड़ ना पाओ तो पीछे छूट जाते हो। मैं मुंबई पहले भी रह चुका हूँ, 4 साल के लिए। हम पवई में अक्सर कुछ रेस्टोरेंट्स जाया करते थे। लेकिन पिछले साल जब मैं वापस आया तो पवई बदल चुका था। वो सारे रेस्टोरेंट्स जिनको मैंने मैप्स पर सेव कर रखा था, बंद हो चुके थे। यहाँ तक कि एक साल के दौरान भी मैंने कई कैफे को खुलते और बंद होते देखा।
ये 365 दिन, ये 24 घंटे
ये भी कम पड़ जाते हैं, शहर में।
-- शहर, ओशो जैन
अब शहर में रहने का तरीका पूरी तरह से बदल गया है। हम ऐप्स पर ढूंढे गए फ्लैट में रहकर, ऐप्स से मंगवाई सब्जियाँ खा रहे हैं, और ऐप्स पर मिले लोगों के साथ ऐप्स पर बुक किए गए शो देखने जा रहे हैं। वो तो पवई के ऑटो वालों ने कैश लेने की परंपरा को बचा कर रखा है, वरना तो सारे पेमेंट्स यूपीआई पर ही होने लगे हैं। सब कुछ ऑनलाइन ऑर्डर होता है। जाने कितनी कैब राइड्स में ओटीपी के अलावा कुछ नहीं बोला जाता। हम सब कुछ ऐप पर ही करते हैं ताकि हमें लोगों से बात ना करनी पड़े। मेरी माँ जब भी मुंबई या बेंगलुरु आती हैं, उन्हें घर पर बंद होकर रहना पड़ता है। चाहे UX को कितना भी सरल बना दो, हमारे माता-पिता की पीढ़ी के लिए इस बदलाव को अपनाना बहुत मुश्किल है। जिन्होंने सब कुछ लोगों से बात करके और उन्हें परख कर करने की आदत डाली हो, वे कैसे विश्वास कर लें सिर्फ चार बटन का?
मैं कुछ ही हफ्ते पहले अपने घर पटना गया था। पिछले 5 सालों में पटना में ज्यादा कुछ नहीं बदला। हां, कुछ नए कैफे आ गए हैं और एयरपोर्ट पर एक की जगह दो लगेज बेल्ट हो गई हैं। लेकिन आज भी ओला-उबर से ज्यादा लोग चिल्ला कर ऑटो बुला रहे हैं। कुछ रेस्टोरेंट्स जहाँ मैं बचपन में जाया करता था, आज भी वहीं हैं। घर के बगल की छोटी दुकान, और वो साइबर कैफे जहाँ हम प्रिंट कराने जाते थे, आज भी चल रहे हैं। पटना की रफ्तार मुझे अच्छी लगती है।
नयी नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है |
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन अब घर अच्छा लगता है |
प्रगति उसी स्पीड पर होनी चाहिए ताकि लोगों को एलियनेशन महसूस ना हो। शायद मैं वहीं बड़ा हुआ, इसलिए मुझे उस रफ्तार की ही आदत है। जो बड़े शहरों में ही पैदा हुए हैं, उन्होंने शायद बड़ शहरों की रफ्तार को ही पसंद किया हो।
मैं अपने गाँव भी कभी-कभी जाता हूँ, तो देखता हूँ लोगों को घरों के बाहर बैठे आराम करते हुए। वहाँ की रफ्तार मुझे भी धीमी लगती है। गाँव में सब एक-दूसरे को जानते हैं, किसके घर कौन आ रहा है, किसके बच्चे क्या कर रहे हैं। वही परिचित चेहरे जो मैं 20 साल से देख रहा हूँ। लोगों के पास बहुत समय है दूसरों की जिंदगी में झांकने का। पहले मुझे यह चीज़ पसंद नहीं थी। लेकिन शहर में भी मैं कुछ अलग नहीं कर रहा हूँ, दूसरों की जिंदगी ही देख रहा हूँ, बस फोन पर।
शहर में लोगों की कमी नहीं है, कमी है स्थायी लोगों की। यहाँ हमेशा कोई आ रहा होता है या कोई जा रहा होता है। दोस्त जो मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली में नौकरी बदलते रहते हैं। कुछ सीधे भारत छोड़ कर यूएस जा रहे हैं। शहर उनके जीवन का एक ट्रांजिएंट पीरियड बन गया है।
लोग ऐसे घर में रहते हैं जिसे समेटने में सिर्फ दो घंटे लगते हैं। आप उनके घर जाएंगे तो लगेगा ही नहीं कि वे साल भर से इस शहर में रह रहे हैं। एक दोस्त है जिसने अभी तक अपने मैट्रेस से प्लास्टिक भी नहीं हटाया है। एक और दोस्त है जो हर हफ्ते घर … फ्लाइट टिकट्स की कीमत चेक करता रहता है। मैं देख रहा हूँ कि कुछ दोस्त मुंबई और बेंगलुरु से हर महीने अपने घर चले जाते हैं। किसी से पूछो, कोई नहीं रहना चाहता यहाँ। सबको कहीं तो जाना है, कहाँ जाना है ये नहीं पता।
खज़ाने लुट रहे थे मां बाप के आंगन में।
हम कौड़ियों के भाव घर छोड़ के आ गए।
-- ज़ाकिर खान
कुछ ही दिन पहले, बेंगलुरु में एक दोस्त के साथ कुछ घंटों की मुलाकात हुई। मैंने उससे पूछा कि तुमने पुलिस में शिकायत क्यों नहीं की। उसने कहा, "मैं लड़ता नहीं अब, मैं छोड़ देता हूँ। कितने ही दिनों की तो बात है। यह मेरा घर नहीं है।"
इसमें दोष टेक्नोलॉजी का भी है। Operational efficiency के चक्कर में ऐप्स हर दिन लोगों को बदल रहे हैं। क्या हुआ उस कैब ड्राइवर का, जिसकी बच्चों की कहानी मैंने सुननी शुरू की थी? क्या हुआ उस दोस्त का, जिसके साथ एक बार प्लायो पर बैडमिंटन खेला था? और उस दोस्त का, जिससे क्लब में मेरी बात हुई थी?
मुझे दस मिनट में ग्रॉसरी नहीं चाहिए, कल ही भेजवा दो, लेकिन हर दिन वही भैया से भेजवाओ ना। और दे दो मुझे हर दिन वही कैब ड्राइवर। मैं भी तो जानूं उनकी जिंदगी के बारे में।
मैं सोचता हूँ, जाने कितने लोग शहर आते हैं घर छोड़कर, कुछ बनने के लिए, कुछ पाने के लिए। क्या सबको वो मिल जाता है क्या? छोटे शहरों या गाँवों में आपकी एक पहचान होती है, लोग आपको और आपके परिवार को जानते हैं। लेकिन बड़े शहरों में कोई भी आपको नहीं जानता। जाने कितने लोग बड़े सपने लेकर शहर आते हैं और इस भीड़ में खो जाते हैं। शहर का आसमान भी साफ नहीं रहता, ऐसे में तारों को देखना तो और भी मुश्किल हो जाता है।
आसमान भी डर-डर के कहता है
तारे चोरी हो जाते हैं शहर में।
-- शहर, ओशो जैन
आसमान रूठा, एक सितारों को मिला ना आशियाँ।
-- पंचायत
I close my eyes in narrow lanes and pigsty
I wonder why I can't see the sky and all the stars
-- City Life, Raghav Mettle
यह उम्र भी ऐसी है कि करियर के जुनून में सुकून को नजरअंदाज कर दिया गया है। वरना वो दिन भी आएगा जब थोड़े ठहराव की ज़रूरत होगी। तब कहाँ जाएंगे? किसी जगह को तो घर कहना ही होगा।
और शायद हम में से कईयों की कहानी भी वही होगी जो 'अलकेमिस्ट' की कहानी है। जो ढूंढने बाहर निकले थे, वह कहीं मौजूद घर पर ही था। हम में से कुछ घर की तरफ लौटेंगे, चाहे वो यूएस में रहने वालों के लिए भारत हो, या बेंगलुरु में रहने वालों के लिए पटना।
अब कहानी पूरी करने के लिए उसे जीना तो पड़ेगा।